किस्मत के मारे हैं या जुबां के ,
फरियादें चलती रही ,पर खुदा ना आया ।
सोचते थे की कभी शमा -ऐ -महफिल का दीदार हमें भी हो जाए ,
बस चिराग़ जलाने की देरी तों है ।
कभी उल्फत -कभी जील्लत -कभी रुस्वायी-कभी तन्हाई ,
जिन्दगी के पैमानों ने हमें शराबी बना दिया ।
क्या सोचते हैं -क्या चाहते हैं ;ये हम भी नही जानते ,
पर कुछ दर्द बल्बलाता सा रहा है ;इस जिन्दगी में ।
फरियादें चलती रही ,पर खुदा ना आया ।
सोचते थे की कभी शमा -ऐ -महफिल का दीदार हमें भी हो जाए ,
बस चिराग़ जलाने की देरी तों है ।
कभी उल्फत -कभी जील्लत -कभी रुस्वायी-कभी तन्हाई ,
जिन्दगी के पैमानों ने हमें शराबी बना दिया ।
क्या सोचते हैं -क्या चाहते हैं ;ये हम भी नही जानते ,
पर कुछ दर्द बल्बलाता सा रहा है ;इस जिन्दगी में ।
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